दोस्तो आज हम Maulana Ashraf Ali Thanvi Malfoozat हजरत की ashraf ali thanvi books में से पढ़ कर आप की खिदमत में पेस किया जा रहा है ala hazrat and ashraf ali thanvi के ये 10 malfoozat आप को दीनी और दुनियावी फायदा पहिचाएगा insha allah तो दोस्तो आप पूरी पोस्ट पढ़े और hazrat maulana ashraf ali thanvi के ये malfoozat अमल करते हुए दूसरो तक पहिचाये तो दोस्तो चलो आज की islamic post को शुरू करते है.
Maulana Ashraf Ali Thanvi Malfoozat
1.मुहब्बते ख़ुदावन्दी की सख़्त ज़रूरत (आवश्यकता)
एक मौलवी साहब के सवाल के जवाब में फ़रमाया कि तरीक़ (तसव्वुफ) में बाद तस्हीहे आक़ाइद व आमाले ज़रूरिया (आस्थाओं और जरूरी कामों को सही करने के बाद) के सब से बड़ी चीज़ muhobbat है। इसकी बड़ी सख़्त ज़रूरत है।
muraqaba (ध्यान) से भी ज़्यादातर यही मक़सूद (उद्देश्य) है कि उनसे यकसूई (एकाग्रता) हो और यकसूई से मुहब्बत, और सेमा (राग सुनने) में भी यही होता है कि उससे यकसूई (एकाग्रता) हो जाती है। और यकसूई के साथ एक हैजान (जोश/बेचैनी) भी होता है मगर उसी मुहब्बत का होता है जो पहले से हो। अगर ख़ुदा की मुहब्बत है तो उसका हैजान (जोश) होता है और अगर मख़लूक़ की मुहब्बत है तो उसका हैजान। इसी लिए सेमा (राग सुनने) की हर शख़्स (व्यक्ति) को इजाज़त (अनुमति) नहीं।
Malfoozat Hazrat Thanvi R.A
Maulana Ashraf Ali Thanvi Malfoozat
भाग 5, पृष्ठ 90
2.इमाम महदी अलैहिस्सलाम का तर्ज़ सहाबा सा होगा
एक मौलवी साहब ने अर्ज़ किया कि हज़रत बाज़ लोगों ने यह मशहूर किया है कि इमाम महदी नक़्शबन्दी होंगे।
फ़रमाया कि यह तो मैंने नहीं सुना अलबत्ता बाज़ हनफियों ने लिखा है कि वह हनफी होंगे, मगर यह ग़ुलू (बढ़ा चढ़ा कर पेश करना) है। गालिबन (संभवतः) यह होगा कि इमाम महदी का इज्तिहाद (राय) इमाम साहब के इज्तिहाद (राय) पर मुन्तबिक़ (फिट) हो जाएगा। बातें दावे की दिल को नहीं लगतीं। इसमें तो एक गूना (एक प्रकार की) एहानत (अपमान) है इमाम महदी अलैहिस्सलाम की। उनका तर्ज़ सहाबा का सा होगा। वह ना नक़्शबन्दी होंगे ना चिश्ती ना हनफी। वह तो दीन के हर शोबे (विभाग) में मुस्तक़िल शान रखते होंगे।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 90
Malfoozat E Hakeem Ul Ummat
3.चिश्तिया के यहां अव्वल (पहला) क़दम फना (मिटाना) है।
एक मौलवी साहब के सवाल के जवाब में फ़रमाया कि चिश्तिया पर मोतरिज़ीन (आपत्तिकर्ता) दिलेर हैं इस वजह से कि यह जवाब नहीं देते, जैसे फलाने ख़ान साहब कि मुझसे तो लड़ने को हर वक़्त तय्यार थे मगर मौलवी मुर्तज़ा हसन साहब से कभी ना लड़े इसलिए कि वह बोलते हैं। सो (इसलिए) चिश्तिया इसीलिए लोगों के ज़्यादा तख़्ता ए मश्क़ (निशाना) रहे कि यह बोलते नहीं और बोलें ही क्या? उनके अन्दर एक चीज़ ऐसी है जो किसी के अन्दर इस शान की नहीं और वह शान फना (मिटाना) है। उनके यहां तरीक़ (तसव्वुफ) में यह पहला क़दम है जो दूसरों का मुन्तहा (आखिरी हद) है।
मलफूज़ाते ashraf ali thanvi भाग 5, पृष्ठ 90
4.कशीदगी (Tension) वाले मेरे दुश्मन नहीं
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि मैं निहायत ख़ुशदिली से अपने अहबाब को इजाज़त देता हूं कि जिन हज़रात को मुझ से कशीदगी (Tension) है उनसे मेरी वजह से अपने Relations (संबंधों) को ना बदलें और ना छोड़ें बल्कि वैसे ही ताल्लुक़ात रखें जैसे कि पहले से आपस में हैं। मैं हरगिज़ नहीं चाहता कि मेरी वजह से मेरे अहबाब (दोस्तों) के Relations में बे-लुत्फी (बे मज़ा) हो और ख़ुदा नख़्वास्ता (ख़ुदा ना चाहे) वह कशीदगी (तनाव) वाले भी मेरे दुश्मन नहीं नीज़ पसे पुश्त (पीठ पीछे) जो कुछ भी करते हों या कहते हों मगर सारे सामने आकर वह भी नयाज़ मंदी (दोस्ती) ही का बर्ताव (व्यवहार) करते हैं और मैं अपने इस मज़ाक़ (तबियत) को सब हज़रत हाजी साहब की बरकत समझता हूं और यह असर (प्रभाव) भी उन्हीं की दुआओं का समरा (फल) है कि मुख़ालिफ़ से मुख़ालिफ़ भी सामने आ कर सर निगूं (सर झुकाने वाला) हो जाता है। वरना मेरे अंदर ऐसी कोई चीज़ नहीं कि जिसका यह असर (प्रभाव) हो। ना मुझमें कोई इल्मी ही क़ाबिलियत (योग्यता) है ना माली वजाहत (शान) है ना कोई जाही (रुतबे की) क़ुव्वत (ताक़त) है। एक ग़रीब आदमी हूं, ग़रीब शैख़ज़ादा का लड़का हूं, फिर यह जो कुछ भी नज़र आ रहा है सब हक़ तआला का फ़ज़ल (कृपा) और हज़रत हाजी साहब की बरकत और दुआओं का समरा फल है। उसी की फराअ (शाख़) है कि मैं अपने दोस्तों को हमेशा इस मामले में आजादी देता हूं कि वह मेरी वजह से अपने ऐसे दोस्तों से जिनको मुझसे कशीदगी (तनाव) है बे-लुत्फी (बदमज़गी) और बेताल्लुक़ी (संबंध ख़त्म करने भाव) ना पैदा करें। अगर उनसे ताल्लुकात रखे जाएं तो मुझपर बिहम्दिल्लाह ज़रा असर (प्रभाव) ना होगा, अलबत्ता उसके अक्स (उल्टा) पर ताज्जुब नहीं कि असर (प्रभाव) हो।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 77
Deen Ki Baatein By Ashraf Ali Thanvi
5.महज़ (सिर्फ) वसवसे (शंकाओं) के सबब ख़िदमत ए तालिबीन के ज़रूरी हुक़ूक़ (अधिकार) तलफ (ख़त्म) नहीं कर सकता
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि बाज़ मर्तबा मुझे वसवसा (शंका) होता है कि लोग समझते होंगे कि बड़ा मुतकब्बिर (घमंडी) है, आने वालों के साथ ऐसा बर्ताव (व्यवहार) करता है मगर बिहम्दिल्लाह मुझपर उसका ज़र्रा बराबर असर (प्रभाव) नहीं, जो चाहे समझा करें। मैं समझने वालों की नज़र में मक़बूल (स्वीकार) होने की ग़र्ज़ (उद्देश्य) से कोई काम नहीं करता। आने वालों की मसलेहत (भलाई) देखता हूं। अगर कोई इस को तकब्बुर (घमंड) समझे मेरी जूती से। इन ख़्यालात की वजह से मैं ख़िदमत ए तालिबीन के ज़रूरी हुक़ूक़ (अधिकार) तलफ (ख़त्म) कर दूं यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं इसको ख़्यानत (धोखा) समझता हूं। मैंने उलमा के एक मजमा (सभा) में बर सबीले गुफ्तगू (बात चीत के तौर पर) कहा था कि ना मैं मुतकब्बिर (घमंडी) हूं ना उर्फी मुतावाज़े (औपचारिक विनम्र) , एक सच बोलने वाला आदमी हूं, कभी इसमें तकब्बुर का रंग होता है कभी तवाज़ो (विनम्रता) का। मगर मेरी जो हालत है बिल्कुल खुल्लम खुल्ला है मैं इसको छुपाना नहीं चाहता और छुपाऊं तो जब कि किसी को धोखा देना हो, अस्तग़फिरुल्लआह।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 77
6.बेपर्दगी के मफासिद (खराबियां)
एक साहब के सवाल के जवाब में फ़रमाया कि जी हां बेपर्दगी के मफासिद (खराबियों) को देख लीजिए और इन मफासिद (ख़राबियों) से पर्दे की अहमियत (महत्त्व) का अन्दाज़ा कर लीजिए। यानी यह देख लीजिए कि ज़िना (अनैतिक संबंध) कितनी बड़ी सख़्त चीज़ है जिस पर रज्म (पत्थरों से मार कर ख़त्म) कर देने का हुक्म (आदेश) है और वह बेपर्दगी ही पर मुरत्तब (परिणाम) होता है। पस इस से अंदाजा हो सकता है पर्दे की अहमियत (महत्त्व) का। इसके बाद और ज़्यादा दलाइल (प्रमाण) बयान करने की ज़रूरत नहीं। जब ज़िना (अनैतिक संबंध) का ज़्यादा सबब (कारण) बेपर्दगी है इस वजह से पर्दे की किस क़दर ज़रूरत साबित होती है। अलबत्ता अगर आज अहकामे इस्लाम (इस्लाम के आदेशों) का जिसमें ज़िना (अनैतिक संबंध) की सज़ा भी है कोई नाफिज़ (लागू) करने वाला होता तो रोबे सल्तनत (हुकूमत के डर) से यही लोग जो बेपर्दगी के हामी (समर्थक) हैं सबसे ज़्यादा पर्दे की हिमायत (समर्थन) करते। पस यह लोग सूरत परस्त हैं हक़ीक़त शनास (सच्चाई को पहचानने वाले) नहीं।
अब मैं उसके मफासिद (ख़राबियों) का दूसरा मुशाहदा (दर्शन) कराता हूं, जिन कौमों में पर्दा नहीं किस क़दर फवाहिश (बुराइयों) में मुब्तला (ग्रस्त) हैं।
ग़र्ज़ (मतलब) बेपर्दगी से बड़ी खराबियां पैदा होती हैं मगर आजकल फुस्साक़ व फुज्जार (अपराधियों) का ज़माना है कि कोई सुनता नहीं। अगर समझाओ और बतलाओ तो ख़ुद मुजतहिद और मुफस्सिरीन बन बैठते हैं, कट हुज्जतियां करते हैं।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 77
Maulana Ashraf Ali Thanvi Quotes
7.ख़्वाब का हुक्म बेदारी (जागने) की तरह नहीं
फ़रमाया कि एक ख़त आया है। एक साहब की लड़की का रिश्ता हो रहा है। लड़के वालों ने उनको लिखा कि जनाब रसूले मक़बूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ख़्वाब में तशरीफ़ लाए और यह फ़रमाया कि शादी में जल्दी करो, तो क्या आपकी मसलेहत (परामर्श) हुज़ूर की मसलेहत (परामर्श) से बढ़ी हुई है। अब वह बेचारे लड़की वाले लिखते हैं कि कहीं इस वक़्त शादी ना करना हुज़ूर के हुक्म (आदेश) के खिलाफ तो ना होगा?
मैंने जवाब में लिख दिया है कि ऐसे उमूर (कामों) में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बेदारी (जागने) के इरशादात (आदेश) में भी महज़ (सिर्फ) मशवरा होते थे, जिन पर अमल करने में इन्सान मुख़्तार (स्वतंत्र) होता था। वह अहकामे तश्रीइया (शरीअत के आदेश) नहीं होते थे कि लाज़िम व वाजिब (ज़रूरी) हों और ख़्वाब तो बेदारी (जागने) से भी ज़ईफ (कमज़ोर) है। अलबत्ता अहयानन (कभी कभी) अमरे हाज़िम (अटल) भी होता था जिन का इल्म (ज्ञान) क़राइने क़विय्या (ठोस लक्षणों) से हो जाता था, उसपर अमल (पालन) वाजिब (ज़रूरी) था।
फिर ज़बानी इरशाद फ़रमाया कि एक तालिब इल्म ने चाहा कि मैं शरह जामी पढ़ूं, मौलाना देवबन्दी ने मना फ़रमाया। उसने अगले रोज़ ख़्वाब बयान किया कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि शरह जामी पढ़। मौलाना ने फ़रमाया कि ख़्वाब को तो हम ख़ुद समझ लेंगे मगर तुम शरह जामी नहीं पढ़ सकते।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 73
8.शिकायत से मुताल्लिक़ मामला
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि मेरा मामूल आदत है कि जब कोई किसी की शिकायत लिखता है तो मैं उसकी तहरीर को जिन की शिकायत की है उनके पास भेज देता हूं अगर वह तकज़ीब करे (झुठलाए) तो शाकी (शिकायत करने वाले) के क़ौल (बात) को हुज्जत (प्रमाण) क़रार नहीं देता और मामला ख़त्म कर दिया जाता है और अगर वह उसकी तस्दीक़ करे (सच बतलाए) तो फिर उससे जवाब तलब करता हूं, और शरीअत का यही हुक्म (आदेश) है। और अगर कोई शिकायत के साथ यह भी लिखे कि उसको यह भी लिख दो तो मैं पूछता हूं कि क्या तुम्हारी तहरीर उसके पास भेज दूं? इस तरीक़ (रास्ते) में बड़ी सहूलत (सावधानी) होती है।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 69
Hifzul Iman Sshraf Ali Thanvi
9.गुस्से के मौक़े पर गुस्सा ना आना
एक साहब की ग़लती पर मुआख़ज़ा (पकड़) फ़रमाते हुए फ़रमाया कि बुज़ुर्गी के लवाज़िम (ज़रूरी चीज़ों) में से यह भी समझते हैं कि बुजुर्गों में बेहिसी बेग़ैरती हो, किसी चीज़ से मुतअस्सिर (प्रभावित) ना हों, जमाद (बेजान चीज़ों) की तरह सब के ताबे (आधीन) रहें।
मैं तो कहा करता हूं कि बुज़ुर्गों को बहुत समझते हैं कि उनके साथ जो चाहो बर्ताव करो उनको हिस (महसूस करने की शक्ति) ही नहीं होती और इसको बे-नफ्सी (अपने आप से बेख़बर) कहते हैं। इन अग़बिया (बेवकूफ़ों) को यह ख़बर नहीं कि बे-नफ्सी और चीज़ है, बेहिसी (एहसास का अभाव) और चीज़ है।
इमाम शाफ़ई ने ख़ूब फ़रमाया है कि जिनको गुस्सा दिलाया जाए और उसको ग़ुस्सा ना आए वह हिमार (गधा) है और वह जो माज़रत (माफी) को क़बूल (स्वीकार) ना करे वह शैतान है। मतलब यह कि दोनों चीज़ों से मुतअस्सिर (प्रभावित) होना यह इन्सानियत है।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 69
Hazrat Maulana Ashraf Ali Thanvi
10.मुसलिह मुश्फिक़ (सुधारक) की तालीम में शुबहात (शंकाओं) की मिसाल (उदाहरण)
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि मुस्लिह मुश्फिक़ (दयालु सुधारक) की तालीम (शिक्षा) और तरबियत (सुधार) में शुबहात (शंकाएं) करना या दख़ल देना सख़्त ग़लती है, जैसे तबीब ए हाज़िक़ (माहिर डाक्टर) की तजवीज़ (उपाय) और इलाज में दख़ल देना है हिमाकत (बेवकूफ़ी) है। बाज़ उमूर (कुछ काम) विजदानी (इलहामी) और ज़ौक़ी (आत्मज्ञानी) होते हैं जिसको मुआलिज (डाक्टर) ही समझ सकता है दूसरा नहीं समझता।
एक बुज़ुर्ग के पास एक शख्स आए। शैख़ को क़राइन (लक्षणों) और फिरासत (समझ) से मालूम हुआ उस शख़्स के क़ल्ब में हुब्बे माल (माल की मुहब्बत) है। दरियाफ्त फ़रमाया कि तुम्हारे पास कुछ माल है।
अर्ज़ किया कि सौ दीनार हैं। फ़रमाया उनको फेंक कर आओ। वह चल दिए, बुलाया पूछा क्या करोगे?
अर्ज़ किया किसी को दे दूंगा। फ़रमाया नहीं इससे तो नफ्स (जी) में हज़्ज़ (मज़ा) होगा कि हमने दूसरे को नफा (लाभ) पहुंचाया, दरिया में डाल आओ।
वह चल दिए, फिर बुलाया, पूछा किस तरह डालोगे?
अर्ज़ किया एकदम फेंक आऊंगा।
फ़रमाया नहीं एक दीनार रोज़ाना डालो।
मतलब शैख़ का यह था कि रोज़ाना नफ्स (जी) पर आरा चले।
बाज़ अहले ज़ाहिर ने मुझसे इस पर शुबहा और ऐतराज़ किया कि यह तो इज़ाअत (बर्बादी) है माल की। मैंने कहा कि इज़ाअत (बर्बादी) उसे कहते हैं कि जहां कोई नफा ना हो और यहां नफा है वही जो शैख़ ने तजवीज़ किया। मैंने बिहम्दिल्लाह इसका जो जवाब दिया है किसी के कलाम (बातों) में नहीं देखा। हज़रत! यह लोग भी मुजतहिद हैं, हकीम हैं, उनको हक़ तआला एक नूर (ज्योति) अता फ़रमाते (देते) हैं जिस की वजह से उनकी नज़र में हक़ीक़त (वास्तविकता) आ जाती है।
hazrat maulana ashraf ali thanvi
भाग 5, पृष्ठ 67
बाज़ बुज़ुर्ग भोले (नादान) होते हैं।
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि बाज़ बुज़ुर्ग भोले (नादान) होते हैं, मगर अम्बिया अलैहिमुस्सलाम में से कोई नबी भोले (नादान) नहीं हुए, सब के सब कामिलुल अक़्ल (पूरी अक़्ल वाले) हुए हैं। अगर वह हज़रात भोले (नादान) होते तो बड़े बड़े कुफ्फार (अल्लाह को ना मानने वाले) उनके सामने पानी ना भरते।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ
11.शैख़े कामिल की अशद्द (बहुत ज़्यादा) ज़रूरत
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि इस तरीक़ रास्ते में शैख़े कामिल के इत्तेबा (पालन) की ज़रूरत है। वह इस राह का वाक़िफ (जानकार) होता, वह नफ्स (इच्छा) और शैतान के मकाइद (धोखे) से आगाह (अवगत) करता है। शैख़े कामिल के सर पर होते हुए शैतान कुछ नहीं बिगाड़ा सकता। गो (अगरचे) शैतान के कैद (धोखे) के मुताल्लिक़ (संबंध) मशहूर तो बहुत कुछ है मगर हक़ तआला फरमाते हैं
"इन्ना कैदश्शैतानि काना ज़ईफा"
(तहक़ीक़, शैतान का मकर (धोखा) ज़ईफ (कमज़ोर) होता है)
और हदीस में है
"फक़ीहुन वाहिदुन अशद्दु अलश्शैतानि मान अल्फि आबिदिन"
(यानी एक फक़ीह (दीन की समझ रखने वाला) शैतान पर हज़ार आबिद (इबादत करने वाले) से गिरां (भारी) है)
यह अशद्दियत (भारीपन) इसलिए है कि शैतान शरारत से एक बात दिल में डालता है, बड़ी मुश्किल से उसपर जमाता है, मगर सालिक (तसव्वुफ के रास्ते में चलने वाला) के बयान करने पर शैख़ ने उसकी शरारत और मकर (धोखा) को समझ कर ज़ाहिर कर दिया, शैतान ने सर पीट लिया कि उसके बरसों के मंसूबों (योजनाओं) पर पानी फिर गया। मगर जो अब लोग इस दक़ीक़ा (बारीकी) को नहीं जानते वह इसी ख़लजान और उलझन में रहते हैं कि ना मालूम शैतान क्या नुक़सान पहुंचा दे। बात यह है कि अगर शैतान दुश्मनी करे भी और है ही दुश्मन, मगर फिर भी इल्मे सहीह और तवक्कुल के होते हुए कुछ नहीं कर सकता। उसकी मिसाल उन हज़रात के मुक़ाबले में ख़रबूज़े की सी है और वह हज़रात छुरी हैं, अगर ख़रबूज़ा कोशिश करके छुरी पर गिरे तो ख़रबूज़ा ही का नुक़सान होगा। इसी तरह अगर यह अहलुल्लाह (अल्लाह वालों) का दुश्मन है तो यही ख़सारे (घाटे)) में रहता है। इसलिए इस राह में क़दम रखना बिदून (बिना) शैख़े कामिल के जो उसके फरेबों (धोखों) का ख़ूब जानने वाला है खतरे से ख़ाली नहीं।
इसी को मौलाना रूमी रहमतुल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं:
बिदून (बग़ैर) शैख़े कामिल के इस राह में क़दम रखना ऐसा है जैसा कि बिदून तबीबे हाज़िक़ (माहिर डाक्टर) के कोई शख़्स अपना इलाज ख़ुद करना चाहे, गो (अगरचे) किताब ही देखकर करे क्योंकि किताब को तबीब (डाक्टर) ही समझता है।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 99
12.ताजीले बैअत (बैअत के जल्दी करने) के मफासिद (ख़राबियां)
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि यूं ताजीले बैअत (बैअत के में जल्दी करने) में बहुत से मफासिद (खराबियां) हैं ही मगर बड़ी बात यह है कि नफा मौक़ूफ (आधारित) है मुनासबत (लगाव) पर। अगर यह नहीं कुछ भी नहीं, और मुनासबत की तहक़ीक़ (जानकारी) जल्दी नहीं हो सकती। अलबत्ता तजर्बे की बिना पर दो शख़्सों को बैअत करने के लिए कुछ इन्तज़ार नहीं करता; एक बीमार, एक औरत। यह दोनों क़ाबिले रहम और क़ाबिले रिआयत हैं।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 100
13.नफ्स बड़ा मक्कार है
एक सिलसिले गुफ्तगू में फ़रमाया कि एक रईस (मालदार) थे, यहां के रहने वाले, ग़दर से पहले इंतक़ाल (देहान्त) हो चुका है। बाईस (२२) गांव के जमींदार थे, मगर मोआशरत (रहन सहन) नेहायत (बहुत) सादा थी। चुनांचे जाड़ों में रुई का अंगरखा, रुई का पजामा, रुई का टोप और सख़ी बहुत थे। फिर फ़रमाया कि कभी सादगी किब्र (घमंड) की वजह से भी होती है ताकि लोग यह समझें कि बहुत मोतवाज़े (विनम्र) हैं।
हज़रत मौलाना मोहम्मद याक़ूब साहब फ़रमाया करते थे कि कभी किब्र (घमंड) बसूरते तवाज़ो (विनम्रता के रुप में) भी होता है। नफ्स से बड़ा ही मक्कार है।
बड़े मामू साहब फ़रमाया करते थे कि नफ्स सबका मौलवी है। अपनी ग़र्ज़ (मतलब) के लिए ऐसी बातें निकालता है कि बड़े से बड़े आलिम को भी नहीं सूझ (समझ) सकतीं, बिलख़ुसूस (विषेश रूप से) उस उन लिखे पढ़ों का नफ्स तो और भी ज्यादा पढ़ा जिन (शैतान) होता है।
मलफूज़ाते हकीमुल उम्मत भाग 5, पृष्ठ 103
बुजुर्गों के पास रहने में ही सलामती (सुरक्षा) है।
फ़रमाया कि आज एक ख़त आया है, लिखा है कि जी चाहता है कि महज़ अल्लाह की रज़ा (ख़ुशी) के वास्ते चालीस रोज़े रखूं और ऐसी जगह रहूं जहां कोई ना आए। यह जवाब दिया गया दो चीज़ें इसकी माने (रुकावट) हैं, एक मशक़्क़त (तकलीफ़) ना क़ाबिले अमल, दूसरे शोहरत (नामवरी), इसको देख लिया जाए।
फ़रमाया इसकी ज़रूरत ही क्या है। नामालूम लोग मख़लूक़ (लोगों) से नफ़रत क्यों करते हैं, क्या कोई खाए लेता है?
इसका नतीजा यह होगा कि बुज़ुर्ग मशहूर हो जाएंगे कि चिल्ला खींच रहे हैं और यह बड़ा फितना है।
एक दफा फलां मौलवी साहब ने मुझसे कहा था कि जी चाहता है कि गुमनाम जगह में रहूं जहां कोई ना पहचानता हो।
मैंने कहा कि इसकी ज़रूरत ही क्या है। अपने बड़ों के पास रहने में भी कौन पहचानता है। अगर अलग रहोगे बुज़ुर्ग मशहूर हो जाओगे जो बड़ा फितना है। ख़ैर इसी में है कि अपने बुज़ुर्गों के पास पड़े रहो , देवबंद में ही रहो।
Canclusan
दोस्तो के इस islamic blog में हमने Maulana Ashraf Ali Thanvi Malfoozat के 10 mslfoozat आप ने पढ़े अब आप का काम ये है के इस deen ki baatein आप खुद भी अमल करे और अपने दोस्तो तक भी maulana ashraf ali thanvi quotes को आगे shere जरूर करे फिर मिलते है एक नए टॉपिक के साथ
तब तक अपना खयाल रखें और अपनी दुआ में हमे याद रक्खे
Allah hafiz